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1964 की होली के बाद


सन् 1964 की बात है। उस समय मैं इण्टरमीडिएट के पहले वर्ष का छात्र था, होली की छुट्टियां खत्म हुईं। सब स्कूल आये, मेरे एक सहपाठी बी0एस0 चैहान जो इस समय लखीमपुर खीरी में वकालत करते हैं, मुझसे मिलते ही बोले, ‘‘हरनाम सिंह तुमसे माफी मांगना चाहते हैं।’’ उत्तर में मैंने कहा, कहां हैं हरनाम सिंह? उनको माफी मांगने की जरूरत नहीं है, चलों मैं ही उनसे माफी मांगे लेता हूं क्योंकि उन्होंने मेरे साथ जो कुछ किया था वह प्रतिक्रिया स्वरूप था और वह प्रतिक्रिया मेरे भाषण से उनका दिल दुखने के कारण हुई थी, इसलिए उनका दिल दुखाने का दोषी होने के कारण मेरा माफी मांगना जरूरी था। चैहान ने कहा, शायद अभी वह कमरे से नहीं आये हैं इसलिए मैंने चैहान से उनके कमरे पर चलने को कहा और कमरे की ओर चलने पर सामने से हरनाम सिंह आते हुए दिख गए इसलिए हम स्कूल के बरामदे में रूके, जहां पहुंचते ही हरनाम सिंह ने मुझसे माफी मांगी और मुझे माफी मांगने का मौका नहीं दिया।
माफी इसलिए मांगी गई थी कि होली की छुट्टियों के पहले हरनाम सिंह ने सम्प्रदाय सूचक गाली देकर मुझपर हाथ उठाया था। हाथ, कक्षा के कमरे में उस वक्त उठाया था जब लोगों के कहने पर बेमन से मैंने नाश्ते में मूंगफली बांटना शुरू किया था, हरनाम सिंह के हाथ उठाते ही मेरे सभी सहपाठी उनपर टूट पड़े और मुझे बचाया। यह घटना एकाएक ही नहीं घटित हुई थी बल्कि सहपाठियों के बहुत कहने पर मूंगफली बंटवाने के लिए मैंने किसी ऐसे व्यक्ति का चयन किया जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अछूत समझते थे, लेकिन मेरी बात नहीं मानी गई और मूंगफली मुझसे ही बंटवाने पर जोर दिया गया।
कारण, सम्प्रदाय सूचक गाली के साथ मारने के लिए हाथ पकड़ने का एक ही था कि इस घटना से पूर्व महोली, जिला सीतापुर में सर्वोदय की एक जनसभा थी जिसमें सम्मिलित होने के लिए हम सब को छुट्टी दे दी गई थी। अपनी आदत के मुताबिक मैं सभा में सबसे आगे बैठा था। सारे वक्ताओं का भाषण मैंने ध्यानपूर्वक सुना था और जिस समय अन्तिम वक्ता अपना वक्तव्य समाप्त करने को थे प्रिंसिपल साहब को मैंने देखा कि उनकी नजरें किसी को तलाश रही थीं और उनकी नजरें जिसे तलाश कर रही थीं उसे न पाकर बैठते-बैठते मुझसे बोल पड़े, ‘‘क्या कुछ बोलोगे?’’ मैं उनकी इच्छा का आदर करते हुए बोल पड़ा, ‘‘जैसा आपका आदेश।’’ इस पर उन्होंने उस आखिरी वक्ता के बोलने के बाद ही मुझे बोलने का आदेश दिया और वहां बैठकर मैंने यह पाया था कि कोई भी वक्ता सामाजिक गैर बराबरी के खिलाफ नहीं बोला था, इसलिए उस अछूते विषय को मैंने छुआ और भाषण के दौरान हरनाम सिंह की टोका-टाकी का जवाब देता हुआ मैंने अपना भाषण समाप्त किया और फिर इसी घटना की प्रतिक्रिया थी, हरनाम सिंह का मेरे ऊपर हाथ उठाना।
हरनाम सिंह मेरे ऊपर हाथ उठाने के बाद अपनी जगह परेशान और मैं अपनी जगह, लेकिन इस घटना के तुरन्त बाद होली की छुट्टियां हो जाने के बाद किसी को किसी से बात करने का मौका नहीं मिला और छुट्टियां समाप्त होते ही दोनों ही एक दूसरे से माफी मांगने के लिए तैयार थे, जिसे आसान कर दिया था बी0एस0 चैहान ने।

आज भी 1964 की होली के बाद की यह घटना मैं नहीं भुला पाया हूं।

संरक्षण वृक्षों जीवों और वन्यजीवों का या इंसानों का भी

कुछ भागों में वृक्षों के संरक्षण का कानून लागू है। वृक्षों की सुरक्षा आवश्यक है पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने के लिए और वन्यजीवों की सुरक्षा भी आवश्यक है। लुप्तप्राय जीवों की सुरक्षा के लिए पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकना भी आवश्यक है, पशुओं से काम लेने के लिए। हमारे देश की एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री को बराबर पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने में लगी हुई हैं और इस कार्य के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा है लेकिन शासन तंत्र का कोई भी व्यक्ति चाहे वह पूर्व हो या वर्तमान इंसानों के प्रति सुरक्षा के लिए नहीं सोचता। अस्तित्व की लड़ाई केवल वन्यजीवों या जलजीवी प्राणियों में ही नहीं बल्कि पक्षियों में भी पाई जाती है। इंसान ही ऐसा प्राणी है जिसमें बुद्धि, विवेक और करूणा का भाव पाया जाता है लेकिन अधिसंख्यक इंसानों ने भी अपने अंदर का यह भाव खो दिया है और पशुवत हो चले हैं। अपने को सभ्य कहने वाला इंसानों का समाज अपने कमजोरों को असभ्य कहता है और इंसानियत से गिरकर ऐसे कमजोरों के लिए उनका स्थान पैरों में रखता है। उन्हें ऊपर उठने और तरक्की करने से रोकता है, अगर वह हिम्मत करके आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यह सभ्य समाज कभी उनका अंग भंग करता है, कभी वन्यजीव समझकर उनका शिकार करता है और कभी पालतू जीव समझकर बिना खाना दिये उनसे भरपूर मेहनत लेता है और इसके खिलाफ अगर कोई आवाज उठती है तो उसे सभ्य समाज सामूहिक रूप से दबा देता है।

सभ्य समाज ही नहीं, तथाकथित सभ्य समाज द्वारा रचित सभ्य एवं असभ्य समाज द्वारा निर्वाचित सरकारें भी तथाकथित सभ्य समाज की मदद में खड़ी रहती हैं और निर्वाचित सरकार में हिस्सेदारी रखने वाले लोग जनसाधारण का प्रतिनिधित्व न करके केवल चुनिंदा लोगों का प्रतिनिधित्व करते और अपने को उनके साथ आगे बढ़ाने के लिए उनकी चाटुकारिता करते हुए दिखते हैं (अपवाद को छोड़कर)। यह चाटुकार प्रतिनिधि केवल जीव-जन्तुओं और जीव-जन्तुओं की सुरक्षा के नाम पर फायदा उठाने वाले लोगों के लिए काम करते हैं, वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए कानून बनाते हैं लेकिन वनवासियों के विरूद्ध उठ खड़े होते हैं और कभी-कभी उनके विरूद्ध अपने आकाओं को मदद पहुंचाने के लिए युद्ध का एलान करते हैं।

आइए व्रत लें, जीवों के प्रति क्रूरता न अपनाने का, वन्य जीवों और वृक्षों की सुरक्षा का और इसी के साथ वनवासियों और तथाकथित सभ्य समाज द्वारा निर्धारित असभ्य समाज को ऊपर उठाने का, यदि ऐसा न हुआ तो देश खुशहाल नहीं रहेगा।

एक बार एक जज साहब बोले

न्यायिक कार्य से छुट्टी पाने के बाद कुछ देर के लिए जज साहब का हमारे साथ बैठना हुआ। बातचीत के दौरान जज साहब बोले, ‘‘ मेरा एक मुसलमान दोस्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्यकर्ता है।’’
मेरा संबंध उस लोकसभा क्षेत्र है जहां से किसी जमाने में सुभद्रा जोशी और अटल बिहारी बाजपेयी चुनाव लड़ा करते थे। सुभद्रा जोशी ने उस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंधित बहुत सारे साहित्य अपने क्षेत्र में वितरित किये और तत्समय का यह किशोर रूचिपूर्वक उस साहित्य को पढ़ता रहा। किसान इंटर कालेज, महोली, जिला सीतापुर में मैंने इंटरमीडिएट में जुलाई 1963 में दाखिला लिया, वहां मेरा एक दोस्त एक दिन खेलकूद और व्यायाम के लिए मुझे अपने साथ ले गया तब मुझे पता लगा कि वह व्यायाम और खेलकूद के लिए संघ शाखा लगाती है। दूसरे दिन मेरे मना करने से पहले मेरे दोस्त ने मुझे खुद शाखा में जाने से यह कहकर मना कर दिया कि शाखा संचालक को मेरे वहां जाने पर आपत्ति थी। आगे शिक्षा ग्रहण के दौरान मैंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बारे में सुनकर और पढ़कर बहुत कुछ जाना समझा।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक ऐसा संगठन है जिसके सामने हमेशा एक काल्पनिक दुश्मन रहता है, बिना दुश्मन की कल्पना किये संघ अपने कार्यकर्ताओं को शिक्षण और प्रशिक्षण नहीं दे सकता। शाखा में व्यायाम खेलकूद के साथ-साथ लाठी-डण्डा भी चलाना सिखाया जाता रहा है और अब आधुनिक युग में आधुनिक हथियारों की भी जानकारी दी जाती है। सिर्फ शाखा में ही नहीं बैठकों में भी मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगला जाता है। मुगल शासकों से लेकर आज के साधारण मुसलमानों तक के खिलाफ वहां बुद्धि का विकास किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र कायम करने के लिए हर प्रयास किया जाता है और हर प्रयास करने की शिक्षा दी जाती है। मुसलमानों को पाकिस्तानी कहकर उन्हें देश से निकालने की बात की जाती है और कहा जाता है कि इस देश में रहने वाले मुसलमानों का हिन्दूकरण करना आवश्यक है। संघ की राजनीतिक औलाद भाजपा अपने अलावा हर पार्टी के खिलाफ मुसलमानों के तुष्टिकरण का इल्ज़ाम लगाती है, इसकी धार्मिक और सामाजिक औलादें हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए मुसलमानों के खिलाफ विषवमन करती रहती हैं। जहां पर मुस्लिम समाज के और मुसलमानों के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ ज़हर उगला जाए वहां पर कोई मुसलमान रह सकता है यह सोचने का विषय है।
फिर भी सब कुछ जानने के बावजूद जज साहब बोले थे कि उनका एक दोस्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्यकर्ता है और यह जानकारी उनको कैसे होती अगर वह खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता न होते।

सोचिए और सोच कर बताइए!

मानव अधिकार आयोग
आयोग का उद्देश्य - भारतीय संविधान ने अपने नागरिकों के इंसान की तरह सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार प्रदान कर रखा है। इंसान, इंसान ही होता है हैवान नहीं हो सकता, फिर भी हमारे देश का एक वर्ग इंसान को हैवान की तरह बांधने, बांधने के बाद छोड़कर हंकाने और कभी-कभी इंसान के सम्मान को छोड़कर बाकी सभी सुख-सुविधाएं उन्हें मुहैया करने के पक्ष में है। अब तो इस मशीनी युग में सारा काम मशीन से किया जाता है और उन मशीनों को चलाने वाले इंसानी दिमाग होते हैं। इस मशीनों का मालिक मशीनों को ठीक-ठाक रखने के लिए इसके रख-रखाव पर ठीक-ठाक खर्च करता है, उसी तरह इस मशीनी युग से पहले जब हमारा समाज जानवरों पर निर्भर करता था, खेती से लेकर ढुलाई तक काम और उससे पहले राजा महाराजा लड़ाई में जानवरों का इस्तेमाल किया करते थे। राजाओं की सेना में घोड़ों और हाथियों के अस्तबल हुआ करते थे और उनकी देखभाल के लिए भी इसी तरह के इंसान लगाये जाते थे जिस तरह आज मशीनों की देखभाल के लिए लगाए जाते हैं। खेती और ढुलाई का काम जानवरों से लेने वाले लोग भी जानवरों की देखभाल इतनी करते थे कि एक-दूसरे में होड़ लगती थी, किसका जानवर कितना अच्छा और मजबूत है। आज हमारा कारपोरेट पुराने राजाओं और खेतीहरों की तरह जानवर की जगह इंसान पाल रहा है और ये पालतू इंसान बहुत खुश होता है, कारपोरेट से अच्छी सुख-सुविधाएं प्राप्त करके।
भारतीय समाज में जानवरों की तरह अच्छी सुख-सुविधा प्राप्त करके जी-तोड़ मेहनत करने की ललक पैदा हुई है। विदेश जाकर अच्छे काॅरपोरेट्स के अस्तबल में रखे जाते हैं, कहीं से उनको किसी तरह से चिन्ता न हो और पूरी लगन के साथ अपने मालिक की सेवा करें और अपनी मेधा उसके लिए ही खर्च करें, हमारा देश हमारा समाज उनके लिए कुछ नहीं है और जिसमें उनका भला है उसी में लगे हैं। यही कारपोरेट हमारे देश में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए प्रयासरत है, अपनी कम्पनियों से मिलने वाला मुनाफा हम देशवासियों को आपस में लड़ाने पर भी खर्च करता है और साथ ही उस मशीनरी पर भी जो देश का प्रशासन चलाती है।
आये दिन देश को कमजोर करने के उद्देश्य से देश के अलग-अलग हिस्सों में ब्लास्ट होते हैं और उन ब्लास्ट में असली गुनहगार गिरफ्त में नहीं आते और बेगुनाहों को पकड़ कर उनका इन्काउन्टर कर दिया जाता है या फिर मौका पाकर उन्हें किसी ब्लास्ट में अभियुक्त बना दिया जाता है या फिर ऐसी घटना में अभियुक्त बनाया जाता है जो कभी घटित न हुई हो। बेगुनाहों को पकड़कर हफ्तों-महीनों और कुछ एक को वर्षों प्रताड़ित किया जाता है और बाद में उनकी गिरफ्तारी दिखाई जाती है और इस प्रकार उनसे सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार छीन लिया जाता है। बेगुनाहों को उनकी गिरफ्तारी की असली तारीख से फर्जी तारीख तक के बीच में जिस तरह प्रताड़ित किया जाता है उस पर मानव अधिकार आयोग यह कहकर विचार नहीं करता कि बाद में उनके खिलाफ मुकदमा कायम हुआ है और उनकी गिरफ्तारी सही है जबकि मानव अधिकार आयोग का यह कर्तव्य बनता है कि देश के नागरिकों द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की शिकायतों की जांच अपने स्तर से करे और उसी एजेन्सी से वह जांच न कराए जिसके खिलाफ पीड़ित व्यक्ति की शिकायत है। यदि ऐसा न किया गया तो पुलिस उत्पीड़न और फर्जी इन्काउन्टर का यह सिलसिला बन्द होने वाला नहीं है। आयोग के लिए अपने विवेक इस्तेमाल करना आवश्यक है न कि शासन और प्रशासन का एक अंग बना रहना।

आतंकवाद
दुनिया में वाद की कमी नहीं है - क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद। इस तरह के बहुत सारे निकृष्ट वाद हैं; लेकिन कुछ उत्तम वाद भी हैं या यूं कहिए कि विचारात्मक वाद हैं जैसे समाजवाद, साम्यवाद, गांधीवाद, पूंजीवाद और फिर इन्हीं वाद के बीच में उत्पन्न हुआ और पनपा आतंकवाद। अपने किसी वाद को दूसरों पर थोपने या मनवाने के लिए जिस हठधर्मी और बल का प्रयोग किया जाता है यही तो है आतंकवाद। आतंक क्या है, अपने सामने वाले को डराना, भय या दहशत में डालना। शब्दकोषों में आतंक की जो परिभाषा दी गई है वह है भय और दहशत। जो हर युग में रही है, अपने-अपने रूप में।
आज मैं अपने देश में फैले आतंकवाद पर विचार करने बैठा हूं। अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा किया, उसे गुलाम बनाया और भारत का सब कुछ लूटकर अपने देश पहुंचाया और जब अंग्रेजों के इस लूट का विरोध हुआ तो विरोध करने वालों को ब्रिटिश साम्राज्य ने आतंकवादी और उनके द्वारा किये जा रहे कार्य को आतंक की संज्ञा दिया। हमारे देश की लड़ाई ने साम्राज्यवाद को समाप्त किया लेकिन समाप्त हुए साम्राज्य ने देश को खण्डित आजादी दिया। उसके लिए हम दोषी किसी को भी माने लेकिन दोष तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद का जिसने हमारे नेतृत्व को सम्प्रदाय के नाम पर बांट कर देश का खण्डित किया और खण्डित आजादी पाकर भी हम खुश रहे और उस खुशी में उस साम्राज्य को गुणगान आज भी हम करते नहीं थकत,े वह जो हमारा अधिनायक ठहरा।
अगस्त 1947 में हमने आजादी पाई लेकिन मिली हुई आजादी हमको नहीं भायी और हम भारतीयों के एक गिरोह ने जो देश की आजादी के सिपाहियों का विरोध कर अंग्रेजों की दलाली करता था सिर उठाया और 30 जनवरी, 1948 को देश में पहली आतंकवादी घटना घटित हुई। आजादी के बाद से ही वह गिरोह देश में आतंक का माहौल बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहा, देश को खण्डित करने का दोषी कोई भी रहा हो लेकिन उस गिरोह ने इस देश के शान्तिप्रिय मुसलमानों को देश के बंटवारे का दोषी होने का प्रचार करके उन्हें आतंकित करने का कार्य किया। आतंक का माहौल इस हद तक पैदा किया कि मुसलमान भी अपने को बंटवारे का दोषी मानकर उस गिरोह के दुष्प्रचार को रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। यही दुष्प्रचार जो और आरम्भ किया गया कि मुसलमान चाहे जितना योग्य हो उसे इस देश में नौकरी पाने का अधिकार नहीं रह गया और इस दुष्प्रचार को भी स्वीकार करके मुसलमानों ने अपने को पीछे कर लिया। नतीजा हुआ कि मुसलमान शिक्षा में, नौकरियों में, उद्योग में और खेती में पीछे होता गया और इस हद तक पीछे हुआ कि तमाम आयोगों की रिपोर्ट उसे दलितों से भी पीछे मानती है।
देश का विकास चाहने वाले लोगों की समझ में यह बात आयी और नतीजे में मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भी मुसलमानों की पढ़ाई पर जोर देना शुरू किया और उन्हें धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ वैज्ञानिक, तकनीकी, चिकित्सीय तथा प्रशासनिक शिक्षा की ओर अग्रसर किया। कुण्ठित बुद्धि खुली और देश की मुख्य धारा में जुड़कर मुसलमानों ने भी देश की सेवा का व्रत लिया और देश को विकसित करने के लिए बढ़कर आगे आये लेकिन देश की आजादी के विरूद्ध साजिश रचने वाले गिरोह ने उसे स्वीकार नहीं किया और हर शासन के खिलाफ मुसलमानों के तुष्टिकरण की नीति का दुष्प्रचार जोरो शोर से किया और मुसलमानों के तुष्टिकरण के दुष्प्रचार को हर आयोग की रिपोर्ट ने झुठलाया है।
यह मानना होगा कि कांग्रेस विरोधियों से कहीं न कहीं भूल हुई कि उन्होंने देश की आजादी विरोधी गिरोह को अपना साथी बनाया, जिसका भरपूर लाभ उस गिरोह ने उठाया। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें कई प्रमुख मंत्रालय उस गिरोह के मुखिया लोगों के पास रहा, उन सीधे-साधे लोगों ने देश विरोधी गिरोह की साज़िश नहीं समझा और उस समय उस गिरोह के मुखिया लोगों ने शासन के हर तंत्र में अपने लोगों को फिट किया, जिसकी भनक देर में ही सही तत्कालीन समाजवादी नेता राजनरायण को लगी और उन्होंने दोहरी सदस्यता का प्रश्न उठाकर गिरोह को शासन तंत्र से अलग करने का प्रयास किया लेकिन गिरोह की साज़िश कामयाब हुई और सरकार टूट गई। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और भाईचारा पर कुठाराघात हुआ और फिर एक समय आया जब साम्प्रदायिक भावना भड़काकर देश की आजादी का विरोधी गिरोह शासन में आया। उत्तर प्रदेश में उस गिरोह का शासन स्थापित हुआ और केन्द्र के शासन पर भी उसका वर्चस्व कायम हुआ। जिसका नतीजा 6 दिसम्बर, 1992 की देश की सबसे बड़ी आतंकवाद घटना, उस घटना से पहले और बाद में गिरोह की सोच ने हजारों देशवासियों की जान ली, देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया और देश में आतंक का माहौल पैदा हुआ और बढ़ता रहा।
मुसलमानों ने हिम्मत नहीं हारी, देश के संविधान के अनुसार धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर अपने चरित्र का निर्माण और आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर देश के विकास में आगे बढ़े, जिसे यह गिरोह सहन नहीं कर सका और केन्द्र तथा राज्य में एक साथ शासन में आने के बाद देश के मुसलमानों के साथ षड़यन्त्र रचने में लगा रहा। धार्मिक शिक्षा देने वाली संस्थाओं चाहे वह नदवद उल उलमा लखनऊ हो या दारूल उलूम देवबंद हर एक के खिलाफ यह गिरोह आतंकवादी शिक्षा देने और आतंकवादी तैयार करने का दुष्प्रचार करने लगा, मदरसों पर छापे डलवाये, साज़िश के तहत कोई छोटी-मोटी घटना कारित कर केन्द्र में तत्कालीन गृहमंत्री और उत्तर प्रदेश में तत्कालीन नगर विकासमंत्री मीडिया पर चिल्लाना शुरू करते थे कि अमुक घटना में लश्करे तोयबा और सिमी (स्टूडेन्ट स्लामिक मूवमेन्ट आफ इण्डिया) का हाथ है और नतीजतन 27 सितम्बर, 2001 को सिमी पर पाबन्दी लगा दी गई, जिसका खुलासा ट्रिब्यूनल के फैसले से होता है। ट्रिब्यूनल के उस फैसले पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी और नये सिरे से सरकार ने सिमी पर पाबन्दी लगाई और सरकार के इसी फैसले से तंग आकर शाहिद बद्र फलाही ने नई पाबन्दी के खिलाफ ट्रिब्यूनल में जाने का इरादा तर्क कर दिया। एक आतंकवादी हो तो गिनाया जाए, गुजरात को मुसलमानों के सामूहिक वध का वर्कशाप बनाकर वहां पर गिरोह के मुखिया ने आतंक का माहौल पैदा किया जो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया और यह गिरोह जो ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थक रहा था अमरीकी साम्राज्यवाद का समर्थक बन बैठा और अपने देश में अमरीका का वर्चस्व कायम करने में कोर कसर नहीं रखा। खूफिया तंत्र में अमरीका, इसराइल और ब्रिटेन का साझा फौजी प्रशिक्षण में अमरीका का हाथ, देश के अर्थतंत्र में अमरीका और इसराइल का हस्तक्षेप बढ़ा है।
26/11 की जांच का नतीजा बताता है कि मुम्बई हमले में डेविड कोलमैन हेडली का पूरा हाथ रहा है जो खुला हुआ सी0आई0ए0 और एफ0बी0आई का एजेन्ट होने के साथ-साथ सी0आई0ए0 और आई0एस0आई0 की बीच की कड़ी है लेकिन हमारी सरकार बेबस और मजबूर उससे पूछताछ भी नहीं कर सकती। अमेरिका जब चाहेगा पाकिस्तानी आतंकी को पाकिस्तान भारत के हवाले करेगा और उसके खुद के लिए इससे अधिक कहना क्या? मालेगांव ब्लास्ट में अभिनव भारत और सनातन संस्था ऐसे संगठनों से सम्बन्धित लोगों का नाम आया है साथ ही संघ परिवार के एक प्रमुख का नाम आया है, आई0एस0आई0 के साथ उनके अच्छे प्रगाढ़ रिश्ते का। संघ परिवार की छत के नीचे पलने वाले अनेक संगठन हैं और इन्हीं संगठनों का नाम आया है। गोआ और मक्का मस्जिद हैदराबाद के ब्लास्ट में। हमारी जांच एजेन्सियां पहले से ही तय कर लेती हैं कि हर ब्लास्ट में मुसलमानों का शामिल होना और तफ्तीश का रूख हर दिशा में न करके सिर्फ एक दिशा में मोड़ दिया करती हैं जिसके कारण सही नतीजा सामने नहीं आता है।
पहले आतंकवादी पैदा करने में मदरसों का नाम आया और उसे सच साबित करने के लिए हमारी जांच एजेन्सियों ने उन मदरसों से पढ़कर निकलने वाले या फिर उनमें पढ़ने वाले नौजवान को निशान बनाया और जब देखा कि मुसलमान नौजवान आधुनिक शिक्षा में भी रूचि रखता है और आगे बढ़ने के लिए शिक्ष ग्रहण कर रहा है तो ऐसे नौजवानों को मुल्जिम बनाया, साथ ही 2006 से 2008 तक वह समय रहा है जब पूरे देश के मुसलमानों को विदेशी आतंकवादी संगठनों से भी जोड़ने का प्रयास किया गया जिसके नतीजे में बंगाल और कश्मीर के कम पढ़े-लिखे नौजवानों को भी अभियुक्त बनाया गया लेकिन उन सब की बेगुनाही के सबूत चिल्ला-चिल्लाकर बोल रहे हैं और कह रहे है कि सारे के सारे नौजवान बेगुनाह हैं। 23 जून, 2007 को लखनऊ में पकड़े गये जलालुद्दीन और नौशाद के तथाकथित बयान पर उ0प्र0 एस0टी0एफ0 द्वारा अली अकबर हुसैन और शेख मुख्तार की गिरफ्तारी हो या 26 जून, 2007 को अलीपुर प0बंगाल के ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट की अदालत से अजीजुर्रहमान को कस्टडी में लिया जाना, जो 22 जून, 2007 से 26 जून, 2007 तक मजिस्ट्रेट के आदेश से एस0ओ0जी0/सी0आई0डी0 प0 बंगाल की कस्टडी में था। 12 दिसम्बर, 2007 और 16 दिस्मबर, 2007 को क्रमशः गिफ्तार किये गये मो0 तारिक कासमी और मो0 खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी 22 दिसम्बर, 2007 को दिखाई गई है। राजस्थान से गिरफ्तार किये गये नौशाद नगीना जिला बिजनौर से गिरफ्तार किये गये, याकूब और उत्तरांखण्ड के हरिद्वार से गिरफ्तार किये गये नासिर की गिरफ्तार लखनऊ से दिखाई गई। फर्जी कार्यवाही फर्जी होती है और वह फर्जी साबित होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। हर मुकदमे और हर मुल्जिम को गिना पाना यहां सम्भव नहीं है और न ही यहां उसकी आवश्यकता है, यह तो कुछ उदाहरण उद्धृत किये गये हैं। आफताब आलम अंसारी बेगुनाह साबित हुआ, शेख मुबारक की बेगुनाही ने उन्हे जेल की सलाखों से बाहर किया, मक्का मस्जिद हैदराबाद के मामले में बनाये गये अभियुक्त छोड़े गये और सच्चाई धीरे-धीरे सामने आ रही है यानी कि जो गिरोह गुलाम भारत में देश के खिलाफ साज़िश में लगा हुआ था आज भी उसकी साजिशें रूकी नहीं हैं और पहले वह ब्रिटिश साम्राज्य की दलाली करता था आज अमरीकी साम्राज्य की दलाली में लगा है। देश पर फिर से साम्राज्य स्थापित न हो और देश की सम्प्रभुता बरकरार रहे इसलिए हमें असली आतंकवादी को पहचान करके आतंकवाद से बचाने के लिए अपने को चैकस रखना होगा और आतंकवादी गिरोह बेगुनाहों को आतंकवादी कहकर खुद आतंकवाद फैला रहा है, समझना होगा यही है असली आतंकवाद।

एक समय था जब रेल यात्रा सुरक्षित हुआ करती थी। धीरे-धीरे एक समय ऐसा आया जब रेलवे की टिकट खिड़कियों से लेकर टेªन के अन्दर गिरहकटी हुआ करती थी। टिकट खिड़कियों पर लिखा रहता था गिरहकटों से सावधान। गिरहकटों से सावधान पर निगाह पड़ते ही लोग अपनी-अपनी जेब देखने लगते थे और इसी में गिरहकट भांप जाते थे कि उन्हें किस जेब पर हाथ साफ करना है। टिकट हाथ में आने के जब बचा हुआ पैसा टिकट खरीदने वाला अपनी जेब में डालता था तब वह अवाक रह जाता था क्योंकि उस वक्त तक उसकी जेब साफ हो चुकी थी। लम्बी दूरी के मुसाफिर के पीछे ट्रेन में भी गिरहकट लगे रहते थे और जेब न साफ कर पाने की स्थिति में एक गिरहकट दूसरे गिरहकट के हाथ मुसाफिर को बेच दिया करता था और पूरे रास्ते में कहीं न कहीं उसकी जेब साफ हो जाती या सामान गायब हो जाता था। ट्रेनों में टपके बाजी भी जोरों पर होती थी। प्लेटफार्म से ट्रेन के चलने के समय खिड़कियों से हाथ की घड़ियां, कान के झुमके वगैरह भी खींचने का चलन एक जमाने में जोरों पर था।

चोरी, गिरहकटी और टपकेबाजी के बाद टेªन डकैतियों का युग आया। अक्सर टेªन डकैतियां समाचार-पत्रों की खबरें बनी रहतीं और आज भी कभी-कभी टेªन डकैती हो जाती है। टेªन डकैती एक बड़ी घटना हुआ करती थी जिस पर सरकार तथा रेल विभाग का ध्यान गया और टेªनों में मुसाफिरों की हिफाज़त के लिए गार्ड भी तैनात किये गये और इस तरह डकैतियों का सिलसिला काफी हद तक थमा, अगर वह किसी पुलिस वाले के द्वारा न डाली गयी हो क्योंकि ऐसी खबरें भी अक्सर आती रहती हैं।

राजनीति में भी आने वाले लोग ट्रेनों का दुरूपयोग करने से नहीं चूकते और नारा लगाते हुए चलते हैं - ‘‘एक पैर रेल में एक पैर जेल में’’ और इन रेल पर बिना टिकट चलने वालों के पैर जेल तो कभी नहीं गये लेकिन रेल में चढ़ने के बाद टिकट रखने वाले मुसाफिरों को तकलीफ जरूर पहुंचाया। स्लीपर क्लास वालों को बैठने का मौका न देकर उनकी सीटें छीन लेते रहे, ये हैं राजनीतिक लोग; लेकिन वो लोग भी इन राजनीतिक लोगों से कम नहीं जिनकी जिम्मे देश की सुरक्षा सौपी गयी है। अक्सर फौजी लोग ट्रेन से आम मुसाफिरों को बाहर फेंक दिया करते हैं क्योंकि वह अपना अधिकार समझते हैं कि देश की सुरक्षा के बदले वे किसी भी आम नागरिक को चोट पहुंचायें।

इतना सब कुछ मैंने सिर्फ इसलिए कहा क्योंकि भाजपा की एक महारैली दिल्ली में थी, जिसमें पूरे देश के भाजपाई, देशभक्त उमड़ पड़े, एक बहुत बड़ा जत्था मुगलसराय से भी गया था। 20 अप्रैल, 2010 को 7ः30 बजे ट्रेन- 2397 महाबोधी एक्सप्रेस मुगलसराय पहुंची, जिसके कोच नम्बर एस 5 में बर्थ नम्बर 1, 9, 10, 11, 12, 13 और 14 और एस 13 व एस 14 में क्रमशः बर्थ नम्बर 13 और 23। अल्लाह की गाय के नाम से जाने जाने वाले तबलीग़ी जमात के लोग जाने को थे जो टेªन पर सवार हुए जहां देखा कि उनकी सीटों पर दूसरे लोग बैठे हुए थे। उन लोगों ने अपनी सीट पर बैठे लोगों से सीट खाली करने को कहा, तो उन लोगों ने सीट नहीं खाली की जिसकी शिकायत सिक्योरिटी गार्ड से की गई। शिकायत करने पर भाजपाइयों ने नारेबाजी शुरू कर दी और कहा कि वे उस ट्रेन में कठमुल्लाओं को नहीं जाने देंगे और यह भी कहा कि अगर उनसे बल प्रयोग करके सीट खाली करा ली गई तो वे आगे जाकर कठमुल्लाओं को ट्रेन से बाहर फेंक देंगे। इसी के साथ ट्रेन के दूसरे डिब्बों में बैठे अपने दूसरे साथियों को बुलाने के उद्देश्य से नारेबाजी तेज कर दी, जिनकी मंशा भांप कर तबलीग़ी जमात के लोग ट्रेन से उतर गये और जाकर टिकट वापस कर दिया। ऐसी स्थिति में कौन हिम्मत करेगा, टेªन से सफर करने की। जब वैध टिकट रखकर सफर करने वालों की सुरक्षा की कोई गारन्टी नहीं है और बिना टिकट चलने वालों के खिलाफ या बिना टिकट चलने वालों को सफर से रोकने के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कोई उचित कार्यवाही न की जाए। है न यह असुरक्षित रेल यात्रा, क्या आप इसके लिए तैयार हैं।


प्रधानमंत्री की दोस्ती

अभी ताज़ा बयान है हमारे प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह कि उनकी दोस्ती ईरान के साथ है और ये दोस्ती अक्षुण रखने के लिए वह हर हाल में ईरान के साथ हैं। ऐसा ही दावा भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व0 चन्द्रशेखर ने भी इराक के साथ किया था और इराक के साथ दोस्ती बनाये रखने का दम भरते रहते थे। आज से नहीं सदैव से भारत फिलिस्तीन के साथ रहा है और फिलिस्तीन की हर सम्भव सहायता करने का दम भरता रहा है। कुछ ऐसा ही चरित्र अमेरिका का फिलिस्तीन के साथ रहा है और वह बराबर कहता रहा है कि फिलिस्तीन को वह इजराइल के हाथों बर्बाद नहीं होने देगा; लेकिन नतीजा सबका सामने है।

जिस वक्त इजराइल फिलिस्तीन बर्बरतापूर्ण हमले करता है, आम नागरिकों का संहार करता है, अस्पतालों और नागरिक क्षेत्रों पर हमले करके बेगुनाह और जिन्दगी से जूझ रहे बीमारों का संहार करता है, कुल मिलाकर खून की होली खेलता है। ऐसे वक्त पर अमेरिका बोल उठता है कि इजराइल गलत कर रहा है और वह उसे ऐसा नहीं करने देगा, लेकिन मामला ज्यों का त्यों बना रहता है। इजराइल की बर्बता बढ़ने पर अमेरिका भाषा बदली हुई है और वह फिलिस्तीन को इंसाफ दिलाने की बात कर रहा है।

अब देखिये भारत सरकार का व्यवहार, कथनी और करनी का अन्तर। दोस्ती फिलिस्तीन के साथ है लेकिन मदद इजराइल की। फिलिस्तीन कमजोर पड़ता है इसलिए मदद इजराइल से। भारत सरकार इधर काफी दिनों से फिलिस्तीन के साथ दोस्ती समाप्त करके इजराइल के साथ दोस्ती बढ़ाए हुए है। सुरक्षा हथियारों की खरीदारी देश के लिए घातक टेक्नोलाॅजी (चाहे वह किसी क्षेत्र में ही क्यों हो), इजराइल की खूफिया एजेन्सी मोसाद की मदद, उससे प्रशिक्षण, सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करना भी भारत सरकार के एजेण्डे में है लेकिन दोस्ती और हमदर्दी फिलिस्तीन के साथ ही है।

देखा है भारत सरकार की दोस्ती इराक के साथ भी। भारत के प्रधानमंत्री कहते नहीं थकते थे कि भारत पूरी तरह इराक के साथ है। एक तरफ अमेरिका इराक की ताकत की जांच रासयनिक हथियारों की जांच के बहाने करके तत्कालीन इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के बड़बोलेपन की हकीकत जानना चाहता था और एशिया में अपना एक ठिकाना बनाने के लिए प्रयासरत था। इसमें वह कामयाब हुआ और हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री बराबर यह कहने के बावजूद कि वह अमेरिका की सैन्य सहायता नहीं करेंगे, वह चाहे किसी भी प्रकार की क्यों हो अमेरिकी लड़ाका विमानों को ईंधन देते रहे, इसे क्या कहा जाए, अमेरिका के दबाव में काम करना या और कुछ!

अब परखना है अपने वर्तमान प्रधानमंत्री के दावे को, मनमोहन सिंह जी ने अभी कहा है कि वह पूरी तरह ईरान के साथ हैं और ईरान के साथ किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाने के खिलाफ हैं। अभी बार-बार डेविड कोलमैन हेडली को अपनी कस्टडी में लेने का उनका दावा सफल नहीं हो सका है, अमेरिका के बुलावे पर वह हाजिरी देकर वापस गये हैं, अपनी बात मनवाने का दम उनके अन्दर नहीं है (हां, अमेरिका की हर बात मानने को वह तत्पर रहते हैं) अमेरिका के साथ यह दोस्ती, दोस्ती तो नहीं कही जा सकती, उसे तावेदारी का नाम अवश्य दिया जा सकता है। एक तावेदार अपनी दोस्ती उस देश के कब तक कायम रख सकता है जबकि वह जिसके साथ दोस्ती का दम भरता है उस देश का दुश्मन नम्बर एक है, जिसका कि भारत के प्रधानमंत्री तावेदार हैं। मेरी नेक सलाह है कि प्रधानमंत्री जी ईरान के साथ दोस्ती का दावा करने के बजाय अपने देश की सम्प्रभुता बचाये रखें। यही देश के प्रति वफादारी है और दोस्ती भी।